Monday, April 14, 2014

Ye din, ye zindagi...

सुबह की निंद से बचपन की नादानी ऊठ जाती है,
खुद चाय बनाते हुए माँ की टकोर याद आ जाती है

कमसीन पलों की याद में आँखों में नमी सी आ जाती है,
चंद दबे अश्कों से ज़हन में जवानी कदम कर जाती है. 

जवां दिल की दुनियादारी में कुछ दोस्ती-यारी बन जाती है,
दोस्तों की खुदगर्ज़ी से मिले तो दोस्ती की खिलवट सताती है,

इंसानियत की उलजने  खाकर दोपहर की निंद आ जाती है, 
जुट जाये जब इरफ़ानी तो उलजने की ताकत फिर आ जाती है. 

जो दिल से खेले थे उनको खेल दिखाने की होशियारी आ जाती है,
जिसने शायर बनाया उसी को शायरी सुनाने की अदा आ जाती है.

इन मुनाफिक मेहफिलों की गुफ्तगू जब शोर बन जाती है,
घर वापस आकर खुदा से बात करने की आरज़ू खिल जाती है. 

कल का दिन बेहतर गुज़रे ये दुआएं लब पे आ जाती है,
हसरतो से थकी सपनो में डूबी आँखें अब बंद हो जाती है. 

कभी सोचता हूँ एक ही दिन में सारी ज़िन्दगी गुज़र जाती है,
कभी दिन ज़िन्दगी में तो कभी ज़िन्दगी दिन में सिमट जाती है.